Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 14
तत: श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ |
माधव: पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतु: || 14 ||
अर्थात भीष्म जी के शंखनाद के बाद सफेद अश्व से जुड़ा हुआ महान रथ ऊपर, बैठे हुए लक्ष्मीपति भगवान श्री कृष्ण और पांडु पुत्र अर्जुन ने दिव्य शंखो बहुत ही जोर से बजाएं।

Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 14 Meaning in hindi
अर्जुन को दिव्य रथ किसने दिया?
चित्ररथ नाम के गंधर्व ने अर्जुन को 100 दिव्य घोड़े दिए थे। इस घोड़ों में यह विशेषता थी कि लड़ाई में ये कितने ही घोड़े क्यों ना मारे जाए फिर भी यह संख्या में पूरे ही रहते थे, कम नहीं होते थे। यह पृथ्वी, स्वर्ग, वगैरे किसी भी स्थान पर जा सकते थे। वही 100 घोड़े में से सुंदर और अच्छी तालीम दिए गए चार सफेद घोड़े अर्जुन के रथ में जुड़े थे।
महति स्यन्दने स्थितौ : यज्ञ में आहुति के रूप में दिया हुआ घी खाते-खाते अग्नि को अर्जिन हो गया था। इसीलिए अग्नि देव खांडववन के खासखास जड़ी बूटियां खाकर (जलाकर) अपना अर्जिन दूर करने को चाहता था, परंतु देवों द्वारा खांडव वन का रक्षण हो रहा था। इसीलिए अग्नि देव अपने कार्य में सफल नहीं हो पा रहे थे। वे जब जब खांडव वन को जलाना चाहते थे, तब तब इंद्र देव बरसात बरसा कर अग्नि को बुझा देते थे। अंततः अर्जुन की मदद से अग्नि ने पूरे वन को जलाकर अपना अर्जिन दूर कर दिया! और प्रसन्न होकर अग्नि देव ने अर्जुन को यह बहुत ही बड़ा रथ दिया। नौ बैल गाड़े में जितने अस्त्र-शस्त्र समा सकते हैं, उतने ही अस्त्र-शस्त्र इस रथ में रख सकते थे। यह सोने से मढ़ा हुआ और तेजोमय था, इसके पहिए बहुत ही मजबूत और विशाल थे। इसका ध्वज बिजली के समान चमकता था, यह ध्वजा एक योजन तक लहरा रही थी। इतनी लंबी होने के बावजूद भी इसका वजन ज्यादा न था! यह कहीं भी अटकती नहीं थी, और वृक्ष वगैरह में कहीं भी नहीं अटक रही थी। यह ध्वजा पर हनुमान जी विराजमान थे।
स्थितौ : कहने का तात्पर्य है कि, यह सुंदर और तेजस्वी रात ऊपर भगवान श्री कृष्ण और उनके प्यारे भक्त अर्जुन विराजमान होने के कारण यह रथ की शोभा और तेज बहुत ही ज्यादा बढ़ गया था।
माधव: पाण्डवश्चैव : “मां” लक्ष्मी जी का नाम है, और “धव” पति का नाम है। इसलिए माधव नाम लक्ष्मीपति का है। यहां पांडव नाम अर्जुन का है, क्योंकि अर्जुन सब पांडवों में मुख्य है।
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अर्जुन (नर) का और श्री कृष्ण (नारायण) के अवतार थे। महाभारत के हर एक पर्व की शुरुआत में (नर) अर्जुन और (नारायण) भगवान श्री कृष्ण को नमस्कार करने में आया है। इस दृष्टि से पांडव सेना में भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन यह दोनों मुख्य थे। संजय ने भी गीता के अंत में कहा है कि, “जहां योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण और गांडीव धनुषधारी अर्जुन रहेंगे वही लक्ष्मी, विजय, विभूति, और अचल नीति रहेगी।
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दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतु: : भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन के हाथ में जो शंख थे वह तेजस्वी और अलौकिक थे! इस शंखों को उन्होंने खूब जोर से बजाया।
यहां पर शंका हो सकती हैं की, कौरव पक्ष में मुख्य सेनापति भीष्म है, इसीलिए उनका सर्वप्रथम शंख बजाना यह योग्य ही था। परंतु पांडव सेना में मुख्य सेनापति धृष्टद्युम्न होने के बावजूद सारथी बने हुए भगवान श्री कृष्ण ने सबसे पहले शंख क्यों बजाया?
इसका समाधान यह है कि, भगवान सारथी बने हो, या महारथी बने हो, उनका स्थान अग्रसर ही रहता है। वे किसी भी हाेदे पर रहे वह सबसे बड़ा ही बन जाता है।
क्योंकि वे अच्युत है। कभी च्युत होते ही नहीं। पांडव सेना में भगवान श्री कृष्ण ही मुख्य थे। और वही सब का संचालन करते थे। जब वे बाल्यावस्था में थे, तब भी नन्द, उपनंद वगैरा उनकी बात स्वीकार करते थे। इसीलिए तो उन्होंने बालक कृष्ण के कहने से परंपरागत से चली आ रही, इंद्र पूजा को छोड़कर गोवर्धन की पूजा को करने की शुरुआत की थी। तात्पर्य यह है कि भगवान जो कोई अवस्था में हो, जो कोई स्थान ऊपर हो, ओर जहां कहीं भी हो! वहीं मुख्य स्थान हो जाता है। इसलिए भगवान ने पांडवों की सेना में सबसे पहले शंख बजाया।
अब संजय अगले 4 शोक में इस श्लोक का खुलासा करते हुए, दूसरे लोगों के शंख वादन का वर्णन करते हैं।
FAQs
अर्जुन का रथ विशेष क्यों था?
अर्जुन का रथ अग्निदेव द्वारा दिया गया था। यह सोने से मढ़ा हुआ, तेजोमय और विशाल पहियों वाला था। इसकी ध्वजा एक योजन तक लहराती थी, जिस पर हनुमानजी विराजमान थे।
श्रीकृष्ण को ‘माधव’ क्यों कहा जाता है?
‘माधव’ शब्द में ‘मा’ का अर्थ लक्ष्मी और ‘धव’ का अर्थ पति होता है। इसलिए श्रीकृष्ण को लक्ष्मीपति के रूप में माधव कहा जाता है।
श्रीकृष्ण ने सबसे पहले शंख क्यों बजाया?
श्रीकृष्ण का स्थान सदैव अग्रसर होता है, चाहे वे सारथी हों या महारथी। वे अच्युत हैं और किसी भी स्थिति में प्रधान रहते हैं, इसलिए उन्होंने सबसे पहले शंख बजाया।
अर्जुन और श्रीकृष्ण को ‘नर’ और ‘नारायण’ क्यों कहा जाता है?
महाभारत में अर्जुन को ‘नर’ और श्रीकृष्ण को ‘नारायण’ कहा गया है। गीता के अनुसार, जहां श्रीकृष्ण और अर्जुन होंगे, वहीं विजय, ऐश्वर्य और धर्म रहेगा।