जब अपने ही विरोध में खड़े हों – अर्जुन की कहानी आज की कहानी क्यों है?

Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 34 35

आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा: |
मातुला: श्वशुरा: पौत्रा: श्याला: सम्बन्धिनस्तथा || 34 ||

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन |
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते || 35 ||

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 34 35 Meaning

अर्थात अर्जुन कहते है, आचार्य, पिता, पुत्र, दादा, मामा, ससुर, पौत्र, साला तथा अन्य कोई भी सम्बन्धी मुझ पर आक्रमण करें, तो भी मैं उन्हें मारना नहीं चाहता, तथा हे मधुसूदन! यदि मुझे तीनों लोकों का राज्य भी मिल जाए तो भी मैं उन्हें मारना नहीं चाहता, तो फिर पृथ्वी के लिए मैं उन्हें क्यों मारूं?

जब अपने ही विरोध में खड़े हों – अर्जुन की कहानी आज की कहानी क्यों है?

Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 34 35 Meaning in hindi

आचार्या: पितर:….किं नु महीकृते : यदि हमारे परिवार के ये सदस्य अपने अनिष्ट की निवृति के लिए क्रोध में आकर मुझ पर हमला भी करें, और मुझे मार भी डालें, तो भी मैं अपने अनिष्ट की निवृति के लिए क्रोध में आकर उन्हें मारना नहीं चाहता। यदि वे राज्य प्राप्त की लालच में मुझे मारना चाहते है, तो भी मैं अपनी राज्यों प्राप्ति की लालच में फंस कर उन्हें मारना नहीं चाहता। मुद्दा यह है कि मैं क्रोध और लालच के कारण नरक का द्वार नहीं खरीदना चाहता।

यहाँ दो बार ‘अपि’ शब्द का प्रयोग करने का अर्जुन का अभिप्राय यह है कि यदि मैं उसके स्वार्थ में बाधा नहीं डालूँगा, तो वह मुझे क्यों मारेगे? फिर भी मान लो कि वह यह सोचकर कि, पहले उसने हमारे स्वार्थ में बाधा डाल दी है,’ ऐसे विचार से वे मेरे शरीर को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हो भी जाए, तो भी मैं उन्हें मारना नहीं चाहता। दूसरी बात, ऐसी कोई सम्भावना नहीं है कि उनको मारकर मुझे तीनों लोकों का राज्य मिल जायेगा, फिर भी मान लेते हैं कि उनको मारकर मुझे तीनों लोकों का राज्य मिल जायेगा। फिर भी, मैं उन्हें मारना नहीं चाहता।

मधुसूदन : इस संबोधन का तात्पर्य यह है कि अर्जुन श्रीकृष्ण जी से कहते हैं, आप तो राक्षसों को मारने वाले हैं, परंतु यह  द्रोण वगैरा आचार्य और भीष्म वगैरा पितामह कोई राक्षस थोड़ी है? जिसेकि मैं उनको मारने की इच्छा करूं! यह तो हमारे करीबी रिश्तेदार हैं।

आचार्या: : यह रिश्तेदारों में जो द्रोणाचार्य वगैरा के साथ हमारा विद्या का और कल्याण का संबंध है, ऐसे पूज्य आचार्य की मुझे सेवा करनी चाहिए या उनके साथ लड़ाई करनी चाहिए? आचार्य के चरणों में तो अपने आप को, अपने प्राणों को, भी समर्पित कर देना चाहिए,  वही हमारे लिए योग्य है।

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पितर: : शरीर के संबंध से, जो पिता विगेरे लोग हैं, उनका ही तो रूप हमारा शरीर है। शरीर से उनका स्वरूप होने से हम क्रोध अथवा लोभ में फंस कर हमारे उन पीताओं को कैसे मार सकते हैं?

पुत्रा: : हमारे और हमारे भाई के जो पुत्र हैं, उनका तो हमेशा पालन करना योग्य है, वे हमारे विरुद्ध कोई भी काम कर भी ले तो, भी उनका पालन करना हमारा धर्म है।

पितामहा: : वैसे ही जो पितामह है, वह तो हमारे पिताजी के भी पूज्य हैं, तो हमारे लिए तो परम पूज हुए! तो हम उनको कैसे मार सकते हैं?? परंतु हमारी तो ऐसी ही चेष्टा होनी चाहिए, जिसेकि किसी भी प्रकार से उनको दुख ना हो, कष्ट ना हो, परंतु उनको सुख मिले आराम मिले उनकी सेवा हो।

मातुला: : जो हमारे मामा है, वह हमारा पालन पोषण करने वाली माता के भाई हैं, इसीलिए वे माता के जैसे ही पूज्य माने जाने चाहिए।

श्वशुरा : यह जो हमारे ससुर हैं, वह मेरे और मेरे भाइयों की पत्नियों के पूज्य पिताजी हैं, इसीलिए वह हमारे लिए भी पिता समान ही है, इस कारण से मैं उनको मारने की इच्छा कैसे करूं?

पौत्रा: : हमारे पुत्रों के भी जो पुत्र हैं, वे तो पुत्रों से भी ज्यादा पालन पोषण करने योग्य है।

श्याला: : हमारे जो साले हैं, वह भी तो हमारी पत्नीओvके प्यारे भाई हैं! उन्हें भी, मैं कैसे मार सकता हूं?

सम्बन्धिनस्तथा: : यहां जितने भी संबंधीओ दिख रहे हैं, उनके उपरांत भी जितने भी रिश्तेदार हैं, उनका पालन पोषण और सेवा करनी चाहिए या उनको मारना चाहिए?? उनको , मारने से अगर हमें तीनों लोको का राज्य भी मिल जाए तो भी, उनको मारना योग्य है?? उनको मारना तो सब प्रकार से अयोग्य ही है।

इस श्लोक में अर्जुन ने स्वजनों को न मारने के दो कारण बताएं, अब परिणाम की दृष्टि से भी स्वजनों को नहीं मारने का सिद्ध कर रहे हैं।

Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 34 35 Meaning ( Video )

FAQs

अर्जुन अपने स्वजनों को मारने से क्यों इनकार कर रहे हैं?

अर्जुन कहते हैं कि चाहे स्वजन हमला करें या तीनों लोकों का राज्य मिल जाए, फिर भी वे उन्हें नहीं मारना चाहते क्योंकि वे उनके गुरु, पिता, पितामह और अन्य पूज्यजन हैं।

अर्जुन किस मानसिक स्थिति से गुजर रहे हैं?

अर्जुन मोह, करुणा और धर्म संकट में फंसे हैं, वे लोभ और क्रोध के कारण अधर्म नहीं करना चाहते।

क्या आज के कॉर्पोरेट वर्ल्ड में भी अर्जुन जैसी दुविधा होती है?

बिल्कुल! जब दोस्त या रिश्तेदार कार्यस्थल पर प्रतियोगी बनते हैं, तो हमें धर्म (नैतिकता) और कर्म (कर्तव्य) में संतुलन बैठाना पड़ता है।

क्या प्रतिस्पर्धा में भावनाएं आड़े आती हैं?

हाँ, जैसे अर्जुन का मोह और करुणा उन्हें युद्ध से रोक रहे हैं, वैसे ही आज भी भावनाएं हमारे निर्णयों को प्रभावित करती हैं।

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