Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 28 29 30
अर्जुन उवाच |
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् || 28 ||
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति |
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते || 29 ||
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चै व परिदह्यते |
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: || 30 ||
Shrimad Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 28 29 30 Meaning
अर्थात अर्जुन ने बोले- हे कृष्ण! इस युद्ध-इच्छुक परिवार को अपने सामने खड़ा देखकर मेरी मांसपेशियां शिथिल हो रही हैं, मेरा मुंह सूख रहा है, मेरा शरीर कांप रहा है, और मेरी रोंगटे खड़े हो रहे हैं। गांडीव धनुष मेरे हाथ से फिसल रहा है, और मेरी त्वचा जल रही है, मेरा दिमाग घूम रहा है, और मैं खड़ा रहने भी असमर्थ हो रहा हूं।

Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 28 29 30 Meaning in hindi
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् : अर्जुन को ‘कृष्ण’ नाम बहुत प्रिय था। यह संबोधन गीता में नौ बार आता है। भगवान कृष्ण के लिए कोई अन्य संबोधन इतनी बार नहीं आया है। इसी प्रकार अर्जुन का नाम ‘पार्थ’ भगवान को बहुत प्रिय था। अर्थात् भगवान और अर्जुन के बीच वार्तालाप में, वे यही नाम लेते थे और यह बात लोगों में अच्छी तरह से जानी जाती थी। इस दृष्टि से संजय ने गीता के अंत में कृष्ण और पार्थ का उल्लेख किया है। ‘यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः’
पहले धृतराष्ट्र ने कहा था ‘समवेताययुत्सवः‘ और फिर अर्जुन ने कहा था, ‘युयुत्सुं समुपस्थितम्’ लेकिन दोनों के विचारों में बहुत बड़ा अंतर है। धृतराष्ट्र की नजर में तो दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं, और युधिष्ठिर आदि पाण्डु के पुत्र हैं – ऐसा भेद है, इसीलिए धृतराष्ट्र ने वहाँ ‘मामकाः’ और ‘पाण्डवाः’ कहा है। लेकिन अर्जुन की दृष्टि में यह भेद नहीं है! अतः अर्जुन ने यहाँ ‘स्वजनम’ कहा है, जिसमें दोनों ओर के लोग आ जाते हैं। तात्पर्य यह है कि धृतराष्ट्र युद्ध में अपने पुत्रों के मारे जाने के भय से भयभीत और शोकग्रस्त हैं, लेकिन अर्जुन दोनों पक्षों के परिवार के सदस्यों की मौत पर शोक मना रहा है, उसे डर है कि, अगर दोनों पक्षों में से किसी की भी मौत होगी तो वह अंततः हमारा परिवार ही होगा।
तात्पर्य यह है कि दुर्योधन की दृष्टि एक ही प्रकार की रही, अर्थात दुर्योधन के मन में युद्ध की एक ही भावना थी। लेकिन अर्जुन का दृष्टिकोण दो प्रकार का था। पहले अर्जुन धृतराष्ट्र के पुत्रों को देखकर शूरवीरता में आये और धनुष उठाकर युद्ध के लिए खड़े हो गये, और अब अपने सगे-संबंधियों को देखकर वे कायरता से ग्रसित होकर युद्ध से पीछे हट रहे हैं! तथा गांडीव धनुष उनके हाथ से छूट रहा है।
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सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चै व परिदह्यते न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: : अर्जुन के मन में युद्ध के भावी परिणाम के विचार से चिंता हो रही है, दुख हो रहा है। यह चिंता और दुख का असर अर्जुन के पूरे शरीर पर पड़ रहा है, उस असर को अर्जुन स्पष्ट शब्दों से कह रहे हैं कि, मेरे शरीर के हाथ, पैर, मुंह हर एक अंग शिथिल हो रहा है, मुंह सूख रहा है, जिसेकि बोलना भी मुश्किल बन रहा है, पूरा शरीर कांप रहा है, शरीर के सारे रोंगटे खड़े हो रहे हैं। जो गांडीव धनुष की तीर के डंकार से शत्रु भयभीत हो जाते हैं, वही गांडीव धनुष आज मेरे हाथ में से फिसल रहा है। त्वचा में पूरे शरीर में जलन हो रही है, मेरा मन भ्रमित हो रहा है, अर्थात मुझे क्या करना चाहिए? वह भी मुझे कुछ सूझ नहीं रहा। यहां रण भूमि में रथ के ऊपर खड़ा रहने में भी, मैं असमर्थ बन रहा हूं! ऐसा लग रहा है कि में मूर्च्छा से गिर पड़ूंगा। ऐसे अनर्थ होने वाले युद्ध मे, खड़ा रहना यह भी एक पाप है, ऐसा मुझे लग रहा है।
इस श्लोक में अपने शरीर के शौक से उत्पन्न हुए आठ चिन्हों का वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणाम को दर्शाते हुए, शकुनों की दृष्टि से युद्ध करना यह अयोग्य है ऐसा दर्शाते हैं।
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Bhagavad Gita Chapter 1 Shloka 28 29 30 Meaning ( Video )
FAQs
भगवान कृष्ण अर्जुन को ‘पार्थ’ कहकर ही क्यों बुलाते थे?
‘पार्थ’ अर्जुन का प्रिय नाम था, जो उनकी मातृवंशीय पहचान से जुड़ा है। श्रीकृष्ण इसी नाम से उन्हें प्रेमपूर्वक संबोधित करते थे।
अर्जुन का मन युद्ध से क्यों विचलित हुआ?
अपने स्वजनों को युद्ध के लिए तैयार देखकर अर्जुन भावुक हो गए और शरीर में शारीरिक व मानसिक कमजोरी अनुभव करने लगे।
क्या अर्जुन का युद्ध से हटना कायरता था?
नहीं, यह करुणा और आत्ममंथन का प्रतीक था। अर्जुन अपने कर्तव्य और रिश्तों के बीच फंसे हुए थे।